दंगों की राजनीति

पश्चिम बंगाल में हुए दंगे को लेकर जहाँ सारी राजनीतिक पार्टियां अपनी चुप्पी साधे हुए हैं इस प्रकार का परिदृश्य हमारे लोकतांत्रिक भविष्य के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है। आज सोशल मीडिया के युग में इस चीज़ की भी कोई संभावना नहीं बचती की वे (तथाकथित बुद्धिजीवी,धर्मनिरपेक्ष) इन दंगों की खबरों से अछूते रह गये हों।
क्या अब सही और गलत का विरोध अपने अपने एजेंडे के आधार पर होगा?
क्या पश्चिम बंगाल में बीजेपी की सरकार न होने के नाते इन दंगों का कोई विरोध नहीं हुआ?
क्या बंगाल में लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई?
क्या पश्चिम बंगाल असहिष्णु नहीं हुआ?
क्या अब आजादी गैंग का चिर निद्रा में होना उनकी दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित नहीं करती ?
क्या आजादी गैंग को पश्चिम बंगाल में हो रहे दंगों से आजादी नहीं चाहिए?
आखिर क्या कारण था कि पश्चिम बंगाल का दंगा-फसाद किसी प्राइम टाइम का हिस्सा न हो सका?
किस प्रकार के तमाम प्रश्न आज हमारे देश की तमाम जनता जानना चाहती है।
जहाँ तक मेरा विचार है कि ये अवसरवादी मानवता के लोगों का दरअसल मानवता से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है ।ये बीजेपी विरोधी मानसिकता के चलते देश की तमाम चीजों का विरोध करते हैं जो देश हित में होने के साथ साथ बीजेपी के भी हित में होती है।मैं अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए कुछ उदाहरण देता हूँ जैसे कि-सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जीकल स्ट्राइक घोषित करना,काश्मीर में पत्थरबाजों का समर्थन करना,देशद्रोहियों का समर्थन करना,
रेप जैसे जघन्य अपराधों में किसी विषेश धर्म को बदनाम करना,आपस की लडाई को साम्प्रदायिक हिंसा घोषित करना,आतंकवादियों की पैरवी करना जैसे तमाम उदाहरण आज हमारे सामने जीवंत रूप में मौजूद हैं पर हम आज बंगाल दंगे पर ही बात करेंगे। बंगाल के पंचायत चुनाव में इस प्रकार की हिंसा कोई नई बात नहीं है,हर पंचायत चुनाव में इस प्रकार की हिंसा होती रहती है। वहाँ चुनाव बाहुबल से लड़ा जाता है ,जिस इलाके में जिसका वर्चस्व (गुंडा राज) है वो उस इलाके में चुनाव लड़ता है और जीतता भी है ।यदि कोई प्रतिद्वंद्वी मैदान में है तो उसकी हत्या कर दी जाती है या डरा -धमका के बैठा दिया जाता है। अगर पश्चिम बंगाल में कुछ नया है तो वो है कि जहाँ आज के दौर में जहाँ लोग मानवता एवं लोकतंत्र की बात करते हैं वहीं पश्चिम बंगाल में सरेआम मानवता को तार- तार करने वाली घटनाओं ने हम सबको पुनः सोचने पर मजबूर कर दिया है। उसी बर्बरता को बंगाल के इस बार के पंचायत चुनाव में फिर से दोहराया गया।तमाम राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हूई (वहाँ की सत्ताधारी पार्टी के द्वारा) ,वही वहाँ की पुलिस मूकदर्शक बन कर यह सब देख रही थी।वहीं यह आश्चर्य करने वाली बात है कि उस राज्य की मुख्यमंत्री साहिबा देश की प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही हैं,वो अपने-आप को सेक्युलर होने का दिखावा करती है। दीदी आपका ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बनने का नाटक बंगाल की जनता माफ नहीं करेगी। आपने अपने निहित राजनीति स्वार्थ के चक्कर में तमाम गुंडे बदमाशों एवं भ्रष्टाचारियों को संरक्षण प्रदान किया और शायद अब आप दीदी कहलाने लायक भी नहीं रहीं। विपक्ष एवं तमाम बुद्धिजीवी पत्रकारों का ये दायित्व होता है कि वो सत्ता पक्ष की तमाम खामियों का पुरजोर विरोध करें परन्तु बंगाल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ममता सरकार पर प्रश्न उठना लाजिमी है कि जब इस प्रकार की हिंसा हर बार होती है तो सरकार हाथ पे हाथ क्यों धरे बैठी रही। आलम यह है कि आज जब फिर से 500 से अधिक बूथों पर पुनः मतदान हुआ तो फिर से वही या कहें उससे भी बदतर नजारा देखने को मिल है।
हब हम बात करते हैं उन तथाकथित पत्रकारों की जो कुंठित मानसिकता से ग्रसित है। आज हमारे समाज इस प्रकार के तमाम बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों का तर्क काफी तार्किक भी लगता है परन्तु ये सब लोग बेहद ही खास किस्म के अवसरवाद से ग्रसित रहते हैं । ऐसे लोग हमेशा अपने आप को किसी पार्टी विषेश से जुड़े न होने का दावा करते हैं लेकिन विरोध के नाम पर सिर्फ किसी एकमात्र पार्टी का विरोध करते हैं।
कुछ वर्ग के लोग ऐसे भी हैं जिन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में हम उन्हे उदासीन कह सकते हैं परन्तु यह वर्ग सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही भावनात्मक अफवाहों को आधार बनाकर दुख एवं रोष प्रकट करते हैं। इस प्रकार के तमाम बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों में या तो विषय संबंधित जानकारी का अभाव रहता है या फिर पूरी तरह से भावनात्मक रूप से टिप्पणी करते हैं।
आज हमें जरुरत है कि हम सब देश में होने वाली इस प्रकार की तमाम घटनाओं को समान दृष्टिकोण से देखते हुए पुरजोर विरोध करें। विरोध एवं प्रदर्शन सोई हुई ताकतों को उनकी चिर निद्रा से जगाने का काम करती हैं।
Saurav Pandey

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